कुंवर नारायण |
जीवन-परिचय
कुँवर नारायण उत्तर शती के एक महत्त्वपूर्ण नए कवि हैं। उनका जन्म 19 सितंबर, 1927 को फैजाबाद (उत्तर प्रदेश) में हुआ। इंटर तक उन्होंने विज्ञान विषय में शिक्षा प्राप्त की। बाद में उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर परीक्षा उत्तीर्ण की। उन्हें आरंभ से ही घूमने-फिरने का शौक था। उन्होंने सन् 1955 में चेकोस्लोवाकिया, पौलैंड, रूस तथा चीन का भ्रमण किया। वे सन् 1956 में 'युग चेतना' के संपादक मंडल से जुड़ गए। बाद में 'नया प्रतीक' तथा 'छायानट' के संपादक मंडल में भी रहे तथा उत्तर प्रदेश नाटक मंडली के अध्यक्ष भी बने।
कालांतर में वे भारतेंदु नाटक अकादमी के अध्यक्ष बन गए। आरंभ में उन्होंने अंग्रेज़ी में कविताएँ लिखीं, परंतु बाद में हिंदी में कविता लिखने लगे। उनको सन् 1971 हिंदुस्तानी अकादमी पुरस्कार, 1973 में 'प्रेमचंद पुरस्कार' तथा 1982 में मध्यप्रदेश का 'तुलसी पुरस्कार' तथा केरल का 'कुमारन आशान पुरस्कार' भी प्राप्त हुए। उनके इस काम के लिए उत्तर प्रदेश संस्थान ने भी सम्मानित किया तथा 1955 में 'व्यास सम्मान', 'साहित्य अकादमी पुरस्कार', 'शतदल' पुरस्कार मिले। इन्हें 'कबीर' सम्मान भी मिला। कविता, संगीत, दर्शन और फिल्मी दुनिया में नाम बनाने वाले एक महान विद्वान कुंवर नारायण जी का 15 नवंबर, 2017 में उनके घर पर ही उनका देहांत हो गया। इस पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री 'योगी आदित्यनाथ' ने भी उनको श्रद्धांजलि देकर शोक व्यक्त किया।
शिक्षा
कुंवर नारायण ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा इंटर तक की शिक्षा विज्ञान वर्ग से प्राप्त की थी। और बाद में लखनऊ विश्वविद्यालय से सन 1951 में अंग्रेजी साहित्य में ए.म.ए की शिक्षा प्राप्त की। 1973 से 1979 तक वे 'उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादेमी' के उपाध्यक्ष रहे, और उसकी पत्रिका 'छायानट' के संपादक रहे। उन्हें आरंभ से ही घूमने फिरने का शौक था उन्होंने सन् 1955 में चेकोस्लोवाकिया, पौलैंड, रूस तथा चीन का भ्रमण किया। वह शुुुरू से ही जिज्ञासु प्रतीत होते थे। उन्होंने अपना अत्याधिक जीवन का समय अध्ययन में लगा दिया।
लेखनकार्य
कुंवर नारायण इस दौर के सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार हैं। 1950 के आस पास उन्होंने लिखना आरंभ किया। उन्होंने अपने काव्ययात्रा की शुरुआत 'चक्रव्यूह' महाकाव्य से शुरू हुई, अतः इन्होंने सिनेमा, कहानी, रंगमंच तथा अन्य कलाओं पर लेख भी लिखे। इसके साथ ही उन्होंने हिन्दी के काव्य पाठकों में एक नई तरह की समझ पैदा की, यद्यपि कुंवर नारायण की मूल विधा कविता ही रही है, इन्हें सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' जी की भांति अत्याधिक ख्याति कविताओं से ही प्राप्त हुई है। बचपन से ही उनकी रूचि साहित्य में थी, जिसके कारण वे हिंदी साहित्य के जाने माने कवि कहलाते है। कुंवर नारायण जी महादेवी वर्मा के उपासक थे।
किंतु इसके अलावा उन्होंने कहानी, लेख व समीक्षाओं के साथ-साथ सिनेमा, रंगमंच एवं अन्य कलाओं पर भी बखूबी अपनी लेखनी चलायी। इसके चलते जहाँ उनके लेखन में सहज ही संप्रेषणीयता आई, वहीं वे प्रयोगधर्मी भी बने रहे। उनकी कविताओं और कहानियों का कई भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में अनुवाद भी हो चुका है। 'तनाव' पत्रिका के लिए उन्होंने कवाफी तथा ब्रोर्सेस की कविताओं का भी अनुवाद किया। कुंवर जी का 1989 में आत्मजयी ग्रन्थ का इतालवी भाषा में अनुवाद भी किया गया था, कुंवर नारायण जी के यहाँ कार चलाने का व्यवसाय इनका पैट्रक व्यवसाय था, पर कुंवर नारायण जी ने इस व्यवसाय के साथ - साथ ही साहित्य जगत में कदम बढाया।
इन्हें भी पढ़ें- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
सम्मान एवं पुरस्कार
- हिन्दुस्तानी अकादमी पुरस्कार 1971
- व्यास सम्मान 1955
- ज्ञानपीठ पुरस्कार 2005
- प्रेमचंद पुरस्कार 1973
- तुलसी पुरस्कार 1982
- साहित्य अकादमी पुरस्कार 1995
- कुमारन आशान पुरस्कार
- शतदल पुरस्कार
- राष्ट्रीय कबीर सम्मान
- पद्मभूषण 2009
काव्यगत विशेषताएँ
कुँवर नारायण जी की काव्य-यात्रा निरंतर विकास की ओर हुई है। 'तार सप्तक' की कविताओं के बाद कवि ने व्यक्ति के मन की स्थिति के चित्रों का अंकन किया है। इनकी काव्यगत विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(i) सामाजिक चेतना
कुँवर नारायण की कविताओं में सामाजिक चेतना का विकास देखा जा सकता है। 'चक्रव्यूह' में जहाँ जीवन के प्रति सामाजिक जीवन का प्रवाह है, वहाँ जीवन संघर्षों के अनेक प्रश्नों की तलाश भी दिखाई देती है। इस काव्य रचना में कवि ने जीवन व जगत की अनेक स्थितियों का वर्णन किया है। जीवन के संघर्षों को कवि अपनी नियति नहीं मानता, बल्कि वह टुकड़ों में बँटी हुई जिंदगी के सुनहरे क्षणों को देखता है; यथा
फिर से सँवार लूँ,
और उन सुनहले क्षणों को जो भागे जा रहे हैं।
पुकार लूँ.............
आगे चलकर कवि मानव के अस्तित्व का चित्रण करते हुए उसके सामने उपस्थित भयानक स्थितियों का वर्णन करता है। कवि स्वीकार करता है कि विषम परिस्थितियों में आदमी जानवर बन जाता है। इसका कारण यह है कि परिस्थितियों की जकड़न से बाहर निकलकर उसके स्वभाव में बदलाव आ जाता है। 'तब भी कुछ नहीं हुआ', 'पूरा जंगल' आदि कविताएँ इसी तथ्य को उजागर करती हैं।
(ii) क्रूर व्यवस्था का वर्णन
कवि 'अपने सामने', काव्य-संग्रह में उस क्रूर व्यवस्था का वर्णन करता है जो मनुष्य की स्वतंत्रता, उसके अस्तित्व को जकड़ लेना चाहती है। लेकिन इसके साथ-साथ वह मुक्ति की भी चर्चा करता है। कवि आस्थाशील है। उसके विचारानुसार सत्ता की यह क्रूरता सार्वकालिक नहीं है, इसे हटाया भी जा सकता है। इसके लिए कवि नैतिकता से जुड़ने की सलाह देता है। कवि का विचार है कि हमें क्रूर व्यवस्था का डट कर विरोध करना चाहिए, अन्यथा यह संपूर्ण मानवता को निगल जायेगी।
(iii) सही मार्ग की खोज
कवि चारों ओर फैली हुई छीना-झपटी और दुनियादारी में विश्वास नहीं करता। वह मानव-जीवन को अंधकारमय होने से बचाना चाहता है। वह एक ऐसा मार्ग खोजना चाहता है जो जीवन को गतिशील बनाए रखे और बाधाओं का सामना कर सके। कवि कहता है-
(iv) प्रकृति-वर्णन
कवि ने 'जाड़े की एक सुबह', 'बसंत की लहर', 'बसत आ', 'सूर्यास्त आदि कविताओं में प्रकृति के पूरे निखार का वर्णन किया है। कवि प्रकृति-वर्णन द्वारा उपदेश नहीं देना चाहता, बल्कि उसके सौंदर्य का स्वाभाविक वर्णन करना चाहता है।
(v) प्रेम के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण
प्रेम के प्रति कुँवर नारायण का दृष्टिकोण पूर्णतया स्वस्थ एवं वैयक्तिक हैं। उनके चारानुसार प्रेम मनुष्य के लिए शक्ति का काम करता है। यह निराश तथा कुचले जीवन में भी सजीवता उत्पन्न करता है। इसलिए प्रेम को आत्मा में स्थान देना चाहिए।
प्रमुख रचनाएं
- चक्रव्यूह (1956)
- तीसरा सप्तक (1959 )
- परिवेश: हम तुम (1961)
- अपने सामने (1979)
- कोई दूसरा नहीं (1993)
- इन दिनों ( 2002 )
- आत्मजयी 1965
- वाजश्रवा के बहाने 2008
- आकारों के आसपास (1973)
- आज और आज से पहले 1998
- मेरे साक्षात्कार 1999
भाषा-शैली
कुँवर नारायण ने खड़ी बोली के स्वाभाविक रूप का अधिक प्रयोग किया है। उन्होंने न तो बलपूर्वक लोक भाषा का प्रयोग किया है, और न ही संस्कृतनिष्ठ पदावली का कवि ने सहज, सरल तथा भावानुकूल छंदों, बिंबों, प्रतीकों तथा अलंकारों का ही प्रयोग किया है। उनकी कविता को पढ़कर पाठक आत्मीयता का अनुभव करता है। छंदों के बारे में उनकी दृष्टि खुली है, क्योंकि वे सभी प्रकार के छंदों का प्रयोग करते हैं। यही नहीं उनकी कविताओं में अनुप्रास, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, मानवीकरण आदि अलंकारों का भी सहज प्रयोग हुआ है। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि कुँवर नारायण नयी कविता के प्रसिद्ध हस्ताक्षर हैं। भाव और भाषा दोनों दृष्टिकोणों से उनका काव्य आधुनिक युगबोध से जुड़ा हुआ है।
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