आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी |
जन्म: 19 अगस्त, 1907, बलिया उत्तरप्रदेश
निधन: 9 मई, 1979 दिल्ली
शिक्षा: काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
व्यवसाय: निबंधकार, कहानीकार, उपन्यासकार, आलोचक
माता: ज्योतिकली देवी
पिता: पं० अनमोल द्विवेदी
लेखन विधा: निबंध, आलोचना, उपन्यास
अवधी/काल: आधुनिक काल
नागरिकता: भारतीय
धार्मिक मान्यता: हिंदू
जीवन परिचय
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी हिंदी के सुप्रसिद्ध निबंधकार थे। हिंदी साहित्य के इतिहास में लगभग 8वीं शताब्दी से लेकर 14वीं शताब्दी तक के काल को आदिकाल खा जाता है। डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी जी भी आदिकाल के प्रमुख कवियों आचार्य राचन्द्र शुक्ल, महावीर प्रसाद द्विवेदी, राजकुमार वर्मा, राहुल सांकृत्यायन में से एक माने जाते हैं। निबंधों की रचना द्वारा उन्होंने निबंध-साहित्य को समृद्ध किया। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के आरत दुबे का छपरा गाँव में सन् 1907 में हुआ था। उनके पिता अनमोल द्विवेदी बहुत अध्ययनशील तथा संत-स्वभाव के थे। द्विवेदी जी की प्रारंभिक शिक्षा अपने जिले के विद्यालयों में हुई। सन् 1930 में उन्होंने 'शास्त्राचार्य' की परीक्षा उत्तीर्ण की। लेखक ने बाल्यकाल में ही मैथिलीशरण की 'भरत-भारती' तथा 'जयद्रथ वध' जैसी कृतियों को कंठस्थ कर लिया था। उन्होंने 'उपनिषद्', 'महाभारत' तथा 'दर्शन-ग्रंथों' गुप्त का अध्ययन किशोरावस्था में ही कर लिया था। द्विवेदी जी 'रामचरितमानस' का नियमित रूप से पाठ किया करते थे।
सन् 1930 में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की नियुक्ति शांति-निकेतन में हिंदी अध्यापक के पद पर हुई। वहाँ पर उनको विश्वकवि रवींद्रनाथ टैगोर, महामहोपाध्याय पं० विधु शेखर भट्टाचार्य, आचार्य क्षितिमोहन सेन, आचार्य नंदलाल बसु जैसे विश्वविख्यात विभूतियों के संपर्क में आने का अवसर मिला। इस वातावरण ने लेखक के दृष्टिकोण को अत्यधिक व्यापक बना दिया। अध्यापन के क्षेत्र में आचार्य द्विवेदी का बहुत योगदान रहा है। कलकत्ता में 'शांति निकेतन' में अध्यापन के पश्चात् लगभग दस वर्ष तक उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर तथा अध्यक्ष के रूप में कार्य किया। तत्पश्चात् वे पंजाब विश्वविद्यालय, वे चंडीगढ़ में भी हिंदी के वरिष्ठ प्रोफेसर तथा 'टैगोर-पीठ' के आचार्य पद पर प्रतिष्ठित रहे। भारत सरकार ने इन्हें 'पद्म भूषण' से अलंकृत किया। ये भारत सरकार की अनेक समितियों के निदेशक तथा सदस्य के रूप में हिंदी भाषा तथा साहित्य की सेवा करते हुए सन् 1979 में दिल्ली में स्वर्ग सिधार गए।
शिक्षा
द्विवेदी जी की प्रारंभिक शिक्षा गाँव के स्कूल में ही हुई और वहीं से उन्होंने मिडिल की परीक्षा पास की। इसके पश्चात 1930 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय में इंटर की परीक्षा और शास्त्राचार्य की उपाधि प्राप्त की। शिक्षा प्राप्ति के पश्चात द्विवेदी जी शांति निकेतन चले गए और कई वर्षों तक वहाँ हिंदी विभाग में कार्य करते रहे। शांति निकेतन में रवींद्रनाथ टैगोर तथा आचार्य क्षितिमोहन सेन के प्रभाव से साहित्य का गहन अध्ययन और उसकी रचना प्रारंभ की। इसके अलावा वे जयशंकर प्रसाद जी के साहित्य से अत्यधिक प्रभावित थे। 'महाभारत' तथा 'दर्शन-ग्रंथों' का अध्ययन किशोरावस्था में ही कर लिया था। द्विवेदी जी 'रामचरितमानस' का नियमित रूप से पाठ किया करते थे।
द्विवेदी जी का व्यक्तित्व बड़ा प्रभावशाली है। उनका स्वभाव बड़ा सरल और उदार है। वे हिंदी अंग्रेज़ी, संस्कृत और बंगला भाषाओं के विद्वान हैं। भक्तिकालीन साहित्य का उन्हें अच्छा ज्ञान है। लखनऊ विश्वविद्यालय ने उन्हें डी. लिट. की उपाधि देकर उनका विशेष सम्मान किया है। हिंदी के अलावा, वे संस्कृत, बंगाली, पंजाबी, गुजराती, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश और अंग्रेजी भाषाओं के भी अच्छे ज्ञानी थे। मध्ययुगीन संत कबीर दास के विचारों, कार्यों और उनकी लेखन कला से अत्यधिक प्रभावित थे। हजारीप्रसाद द्विवेदी जी को संस्कृत और ज्योतिष की शिक्षा अपने माता पिता से विरासत में ही मिली थी।द्विवेदी जी को अनेक विषयों का ज्ञान था। इन्होने हिन्दी एवं संस्कृत भाषाओ का गहन अध्ययन किया।
कार्यक्षेत्र
इन्होंने शान्ति निकेतन में एक हिन्दी प्राध्यापक के रूप में 18 नम्वबर 1930 को अपने कैरियर की शुरूआत की। 1949 में लखनऊ विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें कबीरदास पर गहन अध्ययन करने के लिए पी. एच. डी. की मानद उपाधि से सम्मानित किया गया। सन् 1940 से 1950 तक वे विश्वभारती भवन में निदेशक के रूप में कार्यकर्त रहे। अपने इसी कार्यकारी जीवन में इनकी मुलाकात रबिन्द्रनाथ टैगोर से शान्ति निकेतन में हुई।
इन्होंने 1950 में शान्ति निकेतन को छोड़ दिया, और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के प्रमुख और अध्यापक के रूप में जुड़ गए। इसी दौरान, ये 1955 में भारत सरकार के द्वारा गठित किए गए प्रथम राजभाषा आयोग के सदस्य के रूप में भी चुने गए। कुछ समय बाद, 1960 में वह पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ से जुड़ गए। इन्हें पंजाब विश्व विद्यालय में हिन्दी विभाग का प्रमुख और प्रोफेसर चुना गया। उन्होंने अपना अधिकांश समय अध्ययन और साहित्य की योजनाओं में लगा दिया।
पुरस्कार एवं सम्मान
- 1930 काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में "ज्योतिषाचार्य" की उपाधि से सम्मानित किया गया।
- 1940 से 1950 तक "शांति निकेतन" में निर्देशक के रूप में नियुक्त किया गया।
- 1949 "लखनऊ विश्वविद्यालय" द्वारा (डी.लिट्) की उपाधि से सम्मानित किया गया।
- 1950 शान्ति निकेतन में कार्यालय का अन्त और बीएचयू में हिन्दी विभाग के प्रमुख चुने गए।
- 1957 ई. में "पद्मभूषण" की उपाधि से नवाजा गया।
- 1973 "साहित्य अकादमी पुरस्कार" प्रदान किया गया।
- इनकी सुप्रसिद्ध कृति 'कबीर' पर इन्हें 'मंगलाप्रसाद पारितोषिक मिला।
- 'सूर साहित्य' पर इंदौर साहित्य-समिति से स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ।
प्रमुख रचनाएँ
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने विभिन्न विधाओं पर सफलतापूर्वक लेखनी चलाई है। उनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं-
समीक्षात्मक ग्रंथ
- सूर साहित्य(1936)
- हिंदी साहित्य की भूमिका(1940)
- मध्यकालीन धर्म साधना(1970)
- सूर और उनका काव्य(1936)
- साहित्य का मर्म(1949)
- नाथ-संप्रदाय(1950)
- कबीर(1942)
- साहित्य सहचर(1965)
- कालिदास की लालित्य योजना(1965)
- मेघदूत(1955)
- एक पुरानी कहानी(1948)
- हिंदी साहित्य का आदिकाल(1952)
- लालित्य मीमांसा(1962)
उपन्यास
- बाणभट्ट की आत्मकथा(1947)
- चारु चंद्र लेख(1963)
- पुनर्नवा(1973)
- अनामदास का पोथा(1976)
निबंध-संग्रह
- अशोक के फूल(1948)
- विचार-प्रवाह(1949)
- विचार और वितर्क(1954)
- कल्पलता(1951)
- कुटज(1964)
- भारत के कलात्मक विनोद(1972)
साहित्यिक विशेषताएँ-
हिंदी निबंध-साहित्य में आचार्य रामचंद्र शुक्ल के पश्चात् आचार्य द्विवेदी जी सर्वश्रेष्ठ निबंधकार हैं। उन्होंने हिंदी साहित्य को जहाँ गवेषणात्मक, आलोचनात्मक और विचारात्मक निबंध प्रदान किए, वहाँ उन्होंने ललित निबंधों की रचना भी की है। वे हिंदी के प्रथम एवं श्रेष्ठ ललित निबंधकार हैं। यद्यपि उन्होंने पहली बार ललित निबंधों की रचना की, किंतु फिर भी उनका प्रयास अधूरा न होकर पूर्ण है। उनके निबंध साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
(i) प्राचीन एवं नवीन का समन्वय
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंध साहित्य में प्राचीन एवं नवीन विचारों का अपूर्व समन्वय है। उन्होंने अपने निबंधों में जहाँ एक ओर सनातन जीवन-दर्शन और साहित्य-सिद्धांतों को अपनाया है वहीं दूसरी ओर अपने युग के नवीन अनुभवों को लिया है। प्राचीन और नवीन विचारधाराओं के सामञ्जस्य से जो नए-नए निष्कर्ष निकलते हैं वे ही उनके साहित्य की अपूर्व देन कही जाती है। इस नए दृष्टिकोण से आज के साहित्यकारों व समाज को एक नई राह मिल सकती है अथवा जिसे अपने जीवन में धारण करके मनुष्य अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हो सकता है।
(ii) विषयों की विविधता
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जीवन अनुभव बहुत गहन एवं विस्तृत है। उन्होंने जीवन के विविध पक्षों को समीप से देखा और परखा है। अपने विस्तृत जीवन-अनुभव के कारण ही उन्होंने अनेक विषयों को अपने निबंधों का आधार बनाया है। उनके निबंधों को विषय-विविधता के आधार पर निम्नलिखित कोटियों में रखा जा सकता है (क) सांस्कृतिक निबंध, (ख) ज्योतिष संबंधी, (ग) समीक्षात्मक, (घ) नैतिक, (ङ) वृक्ष अथवा प्रकृति संबंधी।
(iii) मानवतावादी विचारधारा
द्विवेदी जी के निबंध साहित्य में मानवतावादी विचारधारा के सर्वत्र दर्शन होते हैं। इस विषय में द्विवेदी जी ने स्वयं लिखा है, “मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ। जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता और परमुखापेक्षिता से न बचा सके, जो उसकी आत्मा को तेजोदीप्त न कर सके, जो उसके हृदय को परदुःखकातर, संवेदनशील न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है।” आचार्य द्विवेदी का साहित्य संबंधी यह दृष्टिकोण उनके साहित्य में भी फलित हुआ है। इसीलिए उनके साहित्य में स्थान-स्थान पर मानवतावादी विचारों के दर्शन होते हैं।
(iv) भारतीय संस्कृति में विश्वास
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी सदैव भारतीय संस्कृति के पक्षधर बने रहे। इसीलिए उनके निबंध साहित्य में भारतीय संस्कृति की महानता की तस्वीर देखी जा सकती है। भारतीय संस्कृति का जितना सूक्ष्मतापूर्ण अध्ययन व ज्ञान उनके निबंधों में व्यक्त हुआ है, वह अन्यत्र नहीं है। उन्होंने भारत की संस्कृति के विभिन्न तत्त्वों में एकता या एकसूत्रता के दर्शन किए हैं। जीवन की एकरूपता की यही दृष्टि उनके साहित्य में साकार रूप धारण करके प्रकट हुई है। द्विवेदी जी सारे संसार के मनुष्यों में एक सामान्य मानव संस्कृति के दर्शन करते हैं। भारतीय संस्कृति के प्रति विश्वास एवं निष्ठा रखने का यह भी एक कारण है। 'अशोक के फूल', 'भारतीय संस्कृति की देन' आदि निबंधों में उनका यह विश्वास सशक्तता से व्यक्त हुआ है।
(v) भाव तत्त्व की प्रधानता
आचार्य द्विवेदी के निबंध साहित्य की अन्य प्रमुख विशेषता है-भाव तत्त्व की प्रमुखता। भाव तत्त्व की प्रधानता के कारण ही भाषा धारा प्रवाह रूप में आगे बढ़ती है। वे गंभीर-से-गंभीर विचार को भी भावात्मक शैली में लिखकर उसे अत्यंत सहज रूप में प्रस्तुत करने की कला में निपुण हैं। इसी कारण उनके निबंधों में कहीं विचारों की जटिलता या क्लिष्टता अनुभव नहीं होती। इस दृष्टि से 'शिरीष के फूल' शीर्षक निबंध की ये पंक्तियाँ देखिए-
“एक-एक बार मुझे मालूम होता है कि यह शिरीष एक अद्भुत अवधूत है। दुःख हो या सुख, वह हार नहीं मानता। न ऊघो का लेना, न माधो का देना। जब धरती और आसमान जलते रहते हैं तब भी यह हज़रत न जाने कहाँ से अपना रस खींचते रहते हैं। मौज में आठों याम मस्त रहते हैं।"
(vi) संक्षिप्तता
संक्षिप्तता निबंध का प्रमुख तत्त्व है। द्विवेदी जी ने अपने निबंधों के आकार की योजना में इस तत्त्व का विशेष ध्यान रखा है। यही कारण है कि उनके निबंध आकार की दृष्टि से संक्षिप्त हैं। ये आकार में छोटे होते हुए भी भाव एवं विचार तत्त्व की दृष्टि से पूर्ण हैं। ये विषय-विवेचन की दृष्टि से सुसंबद्ध एवं कसावयुक्त हैं। शैली एवं शिल्प की दृष्टि से भी कहीं अधिक फैलाव नहीं है। विषय का विवेचन अत्यंत गंभीर एवं पूर्ण है। इसलिए निबंध कला का आदर्श बने हैं।
(vii) देश-प्रेम की भावना
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंध साहित्य में देश-प्रेम की भावना के सर्वत्र दर्शन होते हैं। वे देश-प्रेम को हर नागरिक का परम धर्म मानते हैं। जिस मिट्टी में हम पैदा हुए, हमारा शरीर जिसके अन्न, जल, वायु से पुष्ट हुआ, उसके प्रति लगाव या प्रेम-भाव रखना स्वाभाविक है। इसलिए उन्होंने अपने निबंध साहित्य में देश-प्रेम की भावना की बार-बार और अनेक प्रकार से अभिव्यक्ति की है। इस दृष्टि से उन्होंने अपने निबंधों में अपने देश की संस्कृति, प्रकृति, नदियों, पर्वतों, सागरों, जनता के सुख-दुःख का अत्यंत आत्मीयतापूर्ण वर्णन किया है। 'मेरी जन्मभूमि' निबंध इस दृष्टि से अत्यंत उत्तम निबंध है। इस निबंध में उन्होंने लिखा भी है, “यह बात अगर छिपाई भी तो भी कैसे छिप सकेगी कि मैं अपनी जन्मभूमि को प्यार करता हूँ।”
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